शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2017

जनक-याज्ञवल्क्य-कथा

!!!---: जनक-याज्ञवल्क्य-संवाद :---!!!
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मित्रों !!!

आज हम आपको "बृहदारण्योपनिषद्" (४.१) की एक कथा सुनाते हैं । यह कथा केवल कथा नहीं हैं, इसमें उपदेश भरा है । हम कथा आपको धारावाहिक रूप में बताते हैं, उपदेश आप स्वयं समझ लीजियेगा । इस कथा में राजा जनक और ऋषि याज्ञवल्क्य का संवाद है ।

एक बात हम और बताना चाहेंगे कि उस समय के राजाओं को ऋषियों से बहुमूल्य उपदेश मिलता रहता था । आजकल यदि कोई प्रधानमन्त्री किसी साधु-महात्मा के पास चला जाए, तो उसे बेवकूफ और पाखण्डी मान लिया जाता है । या फिर कोई प्रधानमन्त्री किसी विद्वान् के पास इसलिए नहीं जाना चाहता क्योंकि वो अपने आपको बहुत विद्वान् मानता है और साधु विद्वानों को पागल समझते हैं । लेकिन प्राचीन काल में स्थिति एकदम भिन्न थी ।

एक दिन विदेह देश के राजा जनक अपनी सभा में विराजमान थे । उसी समय सभा में ऋषि याज्ञवल्क्य पधारे । सभी सभासद् उठकर ऋषि को नमन किया । राजा ने उनका आतिथ्य किया ।

आतिथ्य के पश्चात् राजा ने उनके आने का कारण पूछा, "गुरुकुल में सब ठीक तो है । किसी के कारण कोई परेशानी तो नहीं है । ब्रह्मचारियों को भोजन तो मिलता है, गौएँ दूध देती होंगी ।"

कुशल-क्षेम के बाद राजा ने ऋषि से कहा---आप हमें ब्रह्मा के बारे में कुछ बताएँ ।

ऋषि ने उनकी योग्यता जानने के लिए कहा---आपने अब तक ब्रह्मा के बारे में जो कुछ भी सुना है या जाना है, वो सब बताएँ, जिससे मैं आपको उसके आगे बता सकूँ ।

राजा ने कहा---जित्वा शैलिनि नामक एक बहुत बडे विद्वान्, बहुश्रुत, बहुपठित आए थे । उन्होंने मुझे उपदेश दिया---"वाणी ही श्रेष्ठ है, वाणी ब्रह्मा है, उसी की उपासना करो ।"

ऋषि ने कहा---"जो व्यक्ति अपने माता-पिता, आचार्य से सुशिक्षित होगा, वही इतनी ऊँची बात कह सकता है । निश्चय ही एक अर्थ में वाणी को ब्रह्मा माना उचित है । यदि मनुष्य को वाणी ही न मिले तो ऐसा मूक प्राणी संसार में क्या कर सकता है । किन्तु क्या उस विद्वान् ने आपको वाणी का स्थान या प्रतिष्ठा बताई थी ?"

राजा जनक ने कहा---"मुझे उसने यह तो नहीं बताई थी ।"

तब महर्षि बोले---"तब तो वाणी इस महत् ब्रह्म का एक भाग-मात्र ही है ।"

राजा जनक ऋषि से वाणी का स्थान जानना चाहा ।

ऋषि ने उत्तर दिया---"जहाँ से वाक् की उत्पत्ति होती है, वही वाणी का स्थान है, तथा आकाश ही उसकी प्रतिष्ठा है ।"

क्योंकि यदि आकाश न हो तो एक व्यक्ति से उच्चरित वाणी दूसरे को सुनाई नहीं देगी । इसी महत्ता के कारण हमारे ऋषियों ने उसे "शब्दब्रह्म" कहा है । किन्तु वाणी की उपासना प्रज्ञापूर्वक करनी चाहिए, अर्थात् बुद्धि से विचार करके ही वाणी बोलनी चाहिए ।

जब ऋषि ने बुद्धि (प्रज्ञा) की बात कही, तब राजा जनक ने उस प्रज्ञा के बारे में जानना चाहा ।

इस पर महर्षि ने वाणी और प्रज्ञा को अभिन्न बताया----"वाणी से हम ऋग्वेदादि शास्त्रों का अध्ययन , वाचन करते हैं । संसार के सभी लौकिक व्यवहारों का ज्ञान भी वाणी से होता है । इसीलिए इसे बडा (ब्रह्म) कहा गया है ।

परमात्मा का स्तवन, कीर्त्तन भी तो वाणी से ही किया जाता है । यदि वाणी के इस महत्त्व को जानकर उसका सम्यक् सेवन (उपयोग) किया जाए तो वाणी भी हमें कभी निराश नहीं करती है ।



याज्ञवल्क्य से वाणी के इस माहात्म्य को सुनकर राजा जनक बहुत प्रसन्न हुए और गुरुकुल के ब्रह्मचारियों के लिए वृषभ सहित
एक हजार दूध देने वाली जवान गौएँ प्रदान कीं ।
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