शनिवार, 15 अगस्त 2020

क्रोध से निराशा

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चंद्रपुर का राजा चंद्रभान सिंह एक बार अपने कुछ सैनिकों के साथ शिकार खेलने के लिए जंगल में गया । वह जंगल में चलते-चलते बहुत दूर चला गया । उसके सैनिक इधर-उधर बिखर गए और वह अकेला हो गया ।कुछ समय के बाद वह प्यास से व्याकुल हो गया । वह पानी के लिए तरसने लगा । पानी की खोज में वह इधर उधर भटकने लगा ।

तभी उसकी नजर एक वृक्ष पर पड़ी, जहां एक डाली से टप-टप करती पानी की बूंद गिर रही थी । राजा उस वृक्ष के पास गया । नीचे पड़े पत्तों का दोना बनाकर उन बूंदों से दोने को भरने लगा ।

कुछ समय के बाद वह दोना भर गया और राजा प्रसन्न होते हुए जैसे ही पानी को पीने के लिए दोने को मुंह के लगाया । एक तोता टे-टे करते आया और झपट्टा मारकर दोने को नीचे गिरा दिया ।

राजा निराश हो गया । वह वापस उस खाली दोने को भरने लगा| काफी देर के बाद वह दोना फिर भर गया और राजा पुन: हर्षचित्त होकर जैसे ही उस पानी को पीने के लिए दोने को उठाया तो तोते ने वापस उसे गिरा दिया| 

      राजा हताशा के वशीभूत होकर बोला कि मुझे जोर से प्यास लगी है और ये दुष्ट पक्षी मेरी सारी मेहनत पर पानी फेर रहा है ।  मैं इसे छोडूंगा नहीं । राजा ने निशाना साधकर तोते पर बात छोड़ा, निशाना सही लगा और तोते के प्राण निकल गए ।


राजा ने सोचा चलो उस मूर्ख पक्षी से पीछा छूटा ।

अब मैं पानी इकठ्ठा कर अपनी प्यास बुझाऊँगा ।

यह सोचकर वह डाली के वापस पानी इकट्ठा होने वाली जगह पहुंचा तो उसने देखा कि  उस डाली पर एक भयानक विषधर सांप सोया हुआ था और उस सांप के मुंह से लार टपक रही थी|

 राजा जिसको पानी समझ रहा था वह उस विषधर सर्प की जहरीली लार थी ।

राजा का मन ग्लानि से भर गया ।

उसने सोचा, काश ! मैंने संतों के बताये उत्तम क्षमा मार्ग को धारण कर क्रोध पर नियंत्रण किया होता तो ये मेरे हितैषी निर्दोष पक्षी की जान नहीं जाती|

भारवि कवि ने ऐसे लोगों के लिए कहा है :---

सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् ।
वृणुते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः ॥

किसी कार्य को बिना सोचे-विचारे अनायास नहीं करना चाहिए । विवेकहीनता आपदाओं का परम या आश्रय स्थान होती है । अच्छी प्रकार से गुणों की लोभी संपदाएं विचार करने वाले का स्वयमेव वरण करती हैं, उसके पास चली आती हैं ।
 

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