!!!--: विनम्रता :---!!!
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छान्दोग्योपनिषद् की कथा
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एक समय की बात है । ओलों की अचानक वर्षा से सारी फसल नष्ट हो गई । कुरु प्रदेश के एक गाँव में हाथीवान् रहते थे । इसी गाँव में एक निर्धन ऋषि उशस्ति चाक्रायण अपनी पत्नी के साथ रहते थे । गाँव में कहीं अनाज का एक दाना भी नहीं मिला । भूख से ऋषि बहुत व्याकुल हो गए ।
उन्होंने देखा कि एक हाथीवान् गले-सडे उडद खा रहा है । ऋषि ने उस हाथीवान् से जुठे उडद की ही भिक्षा माँगी । हाथीवान् ने उनको उडद का दान दे दिया । ऋषि ने जुठे उडद से अपनी भूख मिटाई और बचे उडद लाकर पत्नी को दे दिए । पत्नी पहले ही भिक्षा माँगकर अपनी भूख का निवारण कर चुकी थी । पत्नी ने वे जुठे उडद अगले दिन के लिए सम्भालकर रख दिए ।
ऋषि भूख के कारण बडे लाचार और पस्त हो गए थे । अगले दिन वे जुठे उडद खाकर वह कुछ शक्ति जुटाकर जीविका की खोज में चल पडे । एक जगह उन्होंने देखा कि एक राजा एक बडा यज्ञ करवा रहे थे , परन्तु यज्ञ के सब सूत्रधार अपने काम में अनाडी थे । उन्हें यज्ञ की विधि का पता नहीं था ।
ऋषि उशस्ति ने उन यज्ञ के संयोजकों से विधि के बारे में प्रश्न पूछे, जिसका वे ठीक से उत्तर नहीं दे पाए । राजा ने यह दृश्य देखकर उनका परिचय पूछा । ऋषि ने उत्तर दिया---"मेरा नाम उशस्ति चाक्रायण है ।"
राजा ने कहा---"मैंने आपकी विद्वत्ता और आपका नाम सुना हुआ है । मैंने आपको बहुत ढूँढवाया था, पर आप नहीं मिले । अब आप ही इन ऋत्विजों के मुख्य ऋत्विज का कार्य करें ।"
उशस्ति ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और कहा---"जितनी दक्षिणा इन लोगों से तय हुई है, उतनी ही मैं लूँगा, उससे अधिक नहीं ।"
ऋषि की उदारता देखकर दूसरे ऋत्विज प्रभावित हो गए । उन्होंने जब अपने यज्ञ-कार्य में त्रुटि पूछी, तब ऋषि ने उनका समुचित समाधान कर दिया ।
उपदेशः----विद्या के साथ झूठा अहंकार भी पैदा हो सकता है , परन्तु यथार्थ विद्या वह है, जहाँ विद्या के साथ विनम्रता भी हो । इसी के साथ निर्धन व्यक्ति भी गुणी और महान् हो सकता है ।
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