शुक्रवार, 29 जुलाई 2016

!!!---: बोपदेव :---!!!

!!!---: बोपदेव :---!!!
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बोपदेव दक्षिण भारत के एक प्रसिद्ध पण्डित और अनेक ग्रन्थों के लेखक थे । इनका जन्म तेरहवीं शताब्दी में हुआ था ।

बचपन में बोपदेव बडे ही मन्दबुद्धि थे । इनके पिता केशव वैद्य ने व्याकरण पढने के लिए इन्हें धनेश पण्डित की पाठशाला में भर्ती करा दी । धनेश जी ने बडे परिश्रम से इन्हें पढाना शुरु किया । दिन-भर वे जो कुछ पढाते, उसे वे शाम तक भूल जाते । व्याकरण पढना तो इनके लिए पत्थर पर सिर पटकना था । उनके शब्द-जाल में फँसकर ये मछली की तरह दिन-भर छटपटाते रहते थे ।

गुरुजी ने बहुत समझाया, बुछाया, डाँटा-फटकारा, परन्तु बोपदेव की सोई हुई बुद्धि नहीं जगी । तब वे डण्डे मार मारकर पढाने लगे । फिर भी बोपदेव की जडता दूर नहीं हुई । उनके लिये व्याकरण पढना बडा भारी दण्ड हो गया । मन-ही-मन उन्होंने मान लिया कि इस ज्ञान-समुद्र का पार पाना असम्भव है । हताश होकर एक दिन वे धनेश जी की पाठशाला से भाग गए । वे दूर जाकर एक कुँए के पास बैठ गए । संयोग से उसी समय एक स्त्री वहाँ पानी भरने के लिए आई । वह अपना घडा कुएँ के किनारे रखकर स्वयं वहीं सुस्ताने के लिए बैठ गई ।

थोडी देर में स्त्री के चले जाने के बाद बोपदेव की दृष्टि एकाएक उस ओर गई, जहाँ पहले घडा रक्खा था । वहाँ एक छोटा-सा गड्ढा बन गया था । बोपदेव सोचने लगे---यह स्त्री नित्य यहाँ पानी भरने आती होगी । प्रतिदिन उसी स्थान पर मिट्टी का घडा रखने के कारण पत्थर पर उसका चिह्न बन गया है । क्या मेरी कच्ची बुद्धि व्याकरण जैसे कठिन विषय को कुछ दिनों के अभ्यास से इसी प्रकार नहीं भेद सकती ?

जिस व्याकरण से बोपदेव इतना घबराते थे, उसी को पढने का दृढ निश्चय करके वे उठ पडे और गुरु के पास लौट आए । उस दिन से वे मन लगाकर पढने लगे । उनकी बुद्धि चैतन्य हो गई । थोडे ही दिनों में उन्होंने सम्पूर्ण व्याकरण कण्ठस्थ कर लिया । व्याकरण पर विजय प्राप्त करके उन्होंने उसका एक सुन्दर स्मारक बनवाया । उसका नाम है---"मुग्धबोध व्याकरण"

वे स्वयं मूढ से पण्डित हुए थे, इसलिए उन्होंने एक ऐसी पुस्तक लिखी जिसकी सहायता से उनके जैसे अन्य मूढ भी सुगमता से व्याकरण का ज्ञान प्राप्त कर सके । इस पुस्तक ने बोपदेव को अमर बना दिया । उन्होंने और भी बहुत से उच्च कोटि के ग्रन्थ लिखे, जिनके कारण विद्वानों में वे "कोविद-गर्व-पर्वत" माने जाने लगे ।


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